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लौह स्तंभ, प्राचीन भारत की हाईटेक साइंस का जीता जागता सबूत

लौह स्तंभ, प्राचीन भारत की हाईटेक साइंस का जीता जागता सबूत

भारती की राजधानी दिल्ली में विष्णु स्तंभ (कुतुबमीनार) के परिसर में खड़ा लौह स्तंभ आज के विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य है। वैज्ञानिक हैरान है कि 6 हज़ार किलो का यह लौहे का स्तंभ 98 प्रतीशत लौहे से बना होने का बावजूद 1600 वर्षों से बिना जंग लगे खुले आसमान के नीचे खड़ा है।

किसने बनवाया था लौह स्तंभ को ?

इस स्तंभ का निर्माण गुप्त वंश के महान राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की याद में करवाया गया था। महाराज चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने 380 ईसवी से 413 ईसवी तक राज किया था। यह लौह स्तंभ संभवता उनके पुत्र और गुप्त वंश के अगले राजा कुमारगुप्त ने बनवाया होगा। महाराज कुमारगुप्त ने 413 ईसवी से 455 ईसवी तक राज किया था तो जरूर इस स्तंभ का निर्माण आज से 1604 साल पहले 413 ईसवी में हुआ होगा।
स्तंभ पर लिखे शिलालेख के अनुसार यह स्तंभ विष्णुपद पहाड़ी के ऊपर बनाया गया था जिसे शायद 1050 ईसवी में दिल्ली के शासक अनंगपाल जा किसी और द्वारा दिल्ली में लाकर खड़ा किया गया। विष्णुवद पहाड़ी वाला क्षेत्र अब मध्यप्रदेश के उदयगिरी शहर के पास स्थित है जो कि लगभग कर्क रेखा (Topic of Cancer) पर स्थित है।

लौह स्तंभ के निर्माण की तकनीक को लेकर वैज्ञानिक अब भी हैरान

लौहे के इस विशाल स्तंभ की उँचाई 7.21 मीटर (23 फुट 8 इंच) है और 1.12 मीटर (3फुट 8 इंच) यह जमीन में गड़ा हुआ है। इसके आधार का व्यास 17 इंच है जबकि ऊपर को जाते हुए यह पतला होता जाता है और उसके ऊपर का व्यास 12 इंच है।
डॉक्टर बी.बी. लाल के अनुसार इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो के टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। आज से 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता।
राबर्ट हैडफील्ड ने धातु का विश्लेषण करके बताया कि आमतौर पर इस्पात को किसी निश्चित आकार में ढालने के लिए 1300-1400 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। पर जो इस्पात इस स्तंभ में लगा है वो राट आइरन कहलाता है जिसे गलने के लिए 2000 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक तापमान की आवशयक्ता होती है। आश्चर्य है कि उस काल में आज की आज की तरह की उच्च ताप भट्ठियां नही थी तो ये कैसे ढाला गया ?

इस लिए नही लगी जंग

IIT कानपुर के विशेषज्ञ डॉक्टर आर बालासुब्रमन्यम ने काफी रिसर्च के बाद पता लगाया है कि इस स्तंभ पर लोहे, ऑक्सीज़न और हाईड्रोजन की एक पतली परत है जिसने इसे जंग लगने से बचा रखा है।
डॉक्टर आर बालासुब्रमन्यम आगे कहते है कि इसके लोहे में फास्फोरस की मात्रा ज्यादा जो इसे खुरने से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। वर्तमान समय जो लोहा उपयोग किया जाता है उसमें फास्फोरस की मात्रा 0.05 प्रतीशत होती है परंतु इस स्तंभ में फास्फोरस की मात्रा 0.10 प्रतीशत है।

शिलालेख

स्तंभ पर गुप्तकाल की ब्राह्मी लिपि में लिखा शिलालेख है, जिसमें बताया गया है कि इसे किस राजा की याद में बनवाया गया था।
स्तंभ पर लिखी लिपि को साल 1903 में पंडित बाकें राय जी ने पहले देवनागरी लिपि में बदला और फिर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
शिलालेख पर लिखा है – ” संगठित होकर आये शत्रुओ को बंगाल की लड़ाई में खदेड़ देने वाले जिस राजा की भुजाओ पर यश का लेख तलवार से लिखा गया हो जिसने सिंधु नदी में सात मुहानों को पार कर बहिलको को जीता जिसकी शक्ति के झोको की सुरभि आज भी दक्षिण समुद्र में बसी है जिसके शांत हो चुके महादावानल की आंच जैसे प्रताप ने शत्रुओ का नाश कर दिया वह राजा खिन्न होकर पृथ्वी छोड़ गया और अपने कार्यो से अर्जित लोक में विचरण करता है उसका यश पृथ्वी पर कायम है। अपने बाहुबल से दुनिया में एकछत्र राज्य स्थापित कर बहुत दिनों तक उपभोग करने वाले पूर्ण चन्द्र का मन विष्णु में रम गया और विष्णु पद पहाड़ी पर विष्णु ध्वज की स्थापना की। ”


तोप का गोला लगने का प्रमाण


लौह स्तंभ का एक भाग थोड़ा सा उखड़ा हुआ है जो साफ़ – साफ़ दर्शाता है कि इसे किसी तोप द्वारा बिलकुल पास से उड़ाने की कोशिश की गई है। हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नही है कि किसने इस पर तोप चलवाई थी, पर ज्यादातर इतिहासकार मानते है कि सन 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर अपने हमले के दौरान इस पर तोप चलाने का आदेश दिया था।
नादिर शाह को जब पता चला कि यह स्तंभ किसी हिंदु राजा से संबंधित है तो उसने फौरन इसे उड़ाने का आदेश दे दिया। गोला चलाने पर स्तंभ पर तो सिर्फ खरोच आई पर पास में स्थित मस्जिद के एक हिस्से को नुकसान पहुँच गया जिसके बाद नादिर शाह ने स्तंभ को उड़ाने का इरादा बदल दिया।


किवदंती और लौहे की बाड़

कहते हैं कि इस स्तंभ को पीछे की ओर दोनों हाथों से छूने पर मुरादें पूरी हो जाती है पर अब आप ऐसा नही कर पाएंगे क्योंकि साल 1997 में पर्यटकों द्वारा इस स्तंभ को नुकसान पहुँचा देने के बाद इसके ईर्द – गिर्द लौहे की बाड़ लगा दी गई थी।

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