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कौरवों और पाण्डवों के जन्म की ऐसी अद्भुत गाथा, जिस पर रिसर्च करना भी कठिन है

कौरवों और पाण्डवों के जन्म की ऐसी अद्भुत गाथा, जिस पर रिसर्च करना भी कठिन है

महाभारत की कथा के बारे में सभी जानते हैं. कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पाण्डवों की विजय हुई और कौरव मृत्यु को प्राप्त हुए थे. ऐसा कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद ही भगवान कृष्ण ने एक फिर से दुनिया में धर्म की स्थापना की. लेकिन क्या आप जानते हैं कि महाभारत के इन महान किरदारों कौरव और पाण्डवों का जन्म कैसे हुआ. आपको बता दें कि इनका जन्म इनकी मां के गर्भ से नहीं हुआ है.

तो आइए आपको बताते हैं कौरवों और पांडवों का जन्म कैसे हुआ था?


कौरवों का जन्म

एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए. उनके आगमन पर गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की. उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा. गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र मांगे. इसके चलते गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा. इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भपात करा दिया. उनके पेट से लोहे के समान एक मांस टुकड़ा निकला.
महर्षि वेदव्यास को इस बात का पता चल गया. वे तुरंत गांधारी के पास आए. गांधारी ने उन्हें यह मांस का टुकड़ा दिखाया. तब उन्होंने कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर रख दो. अब इस मांस के टुकड़े पर जल छिड़को.
जल छिड़कते ही उस मांस के टुकड़े के एक सौ एक टुकड़े हो गए. व्यासजी ने कहा कि अब इन मांस के टुकड़ों को इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो. उन्होंने कहा कि अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना. इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए. समय आने पर उन्हीं मांस के टुकड़ों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या भी पैदा हुई.

पाण्डवों का जन्म

आपको जानकर हैरानी होगी कि पाण्डवों का जन्म बिना पिता के वीर्य के हुआ था. कथा ऐसी है कि एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों – कुन्ती तथा माद्री शिकार पर गए. वहां उन्हें एक हिरन का जोड़ा संबंध बनाता दिखा. पाण्डु ने उस हिरन को मार दिया. मरते हुये हिरन ने पाण्डु को शाप दिया, ‘राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा. तूने मुझे संबंध बनाते हुए मारा है अतः जब कभी भी तू पत्नियों से संबंध बनाएगा तेरी मृत्यु हो जायेगी.’
इस शाप से पाण्डु दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, ‘हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूंगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ.’ ऐसा सुनकर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, ‘नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं. आप हमें भी वन में अपने साथ रहने दीजिये.’ पाण्डु ने इसकी अनुमति दे दी.
पाण्डु ने अपनी पत्नी से कहा, ‘हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता. क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?’ कुन्ती ने कहा, ‘हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूं. आप आज्ञा दें मैं किस देव को बुलाऊं.’
इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया. धर्मराज ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया. कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी. वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई. तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी. माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ.

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