
हमारे धर्म-शास्त्र आदि हमें जीवन, धर्म और संस्कार आदि की शिक्षा देते हैं. जब भी हमें कोई सही-गलत या धर्म-अधर्म की शिक्षा देना चाहता है तो फिर वो हमारे धर्म-शास्त्रों या महाकाव्यों का ही सहारा लेता है. महाभारत से हम धर्म और अधर्म के बीच के अंतर का मर्म सबसे अधिक आसानी और व्यापकता से समझ सकते हैं.
महाभारत में धर्म और अधर्म का महत्व
महाभारत महाकाव्य के अनुसार व्यक्ति के धर्म या अधर्म पर आधारित कर्मों के अनुसार ही उसका फल या परिणाम मिलता है.
एक ही परिवार के लोगों में सिर्फ और सिर्फ कर्मों के आधार पर ही पाण्डवों और कौरवों का वर्गीकरण हुआ था.
धृतराष्ट्र और गांधारी जहां सौ पुत्रों के होने पर सारा ऐश्वर्य होने के बाद भी उन्हें उचित संस्कार और धर्म के अनुसार चलने की शिक्षा नहीं दे पाए वहीं कुंती ने सब कुछ सहते हुए भी अपने पांच पुत्रों को सही संस्कारों और धर्म की शिक्षा देकर पाण्डव बना दिया.
धर्म का पालन करने के कारण ही पाण्डवों को भगवान श्रीकृष्ण का साथ मिला था जिसकी वजह से उन्हें युद्ध में सफलता प्राप्त हुई थी.
अधर्म का पालन कर रहे कौरवों को भगवान श्रीकृष्ण ने कई बार धर्म और अधर्म के बीच का अंतर समझाकर उन्हेंं धर्म के रास्ते पर वापस लाने का प्रयास किया लेकिन अपने अहंकार में चूर कौरवों ने उनकी एक ने सुनी जिससे अंत में वो दुर्गती को प्राप्त हुए.
धर्म का पालन करने के कारण बने धर्मराज
कुंती के द्वारा प्रदान की गई धर्म और सत्य की शिक्षा का यथोचित पालन करने के कारण ही पाण्डवों के सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर कहलाए.
मान्यताओं के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने धरती से स्वर्ग तक का सफर पूरा किया था.
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