यह प्रचलित दोहा भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और महान कवि संगीतकार सूरदास द्वारा रचित है। सूरदास ने नेत्रहीन होने के बावजूद कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की और साथ ही एक मिसाल कायम करते हुए साबित किया कि प्रतिभा और गुण किसी के मोहताज नहीं होते। कहते हैं सूरदास बचपन से ही साधु प्रवृति के थे। इन्हे सगुन बताने की विद्या भगवान से वरदान के रूप में प्राप्त थी।



मात्र छह वर्ष की आयु में इन्होंने अपनी इस विद्या से अपने माता पिता को चकित कर दिया था और इस वजह से ये बहुत जल्द ही प्रसिद्ध हो गए थे। लेकिन इनका मन अपने गांव में नहीं लगता था इसलिए वो अपना घर छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे।

वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जयंती मनाई जाती है। श्री कृष्ण की भक्ति में अपना सारा जीवन समर्पित करने वाले सूरदास की जयंती इस बार आज यानि 20 अप्रैल को है। आइए इस पवित्र अवसर पर सूरदास जी के जीवन और उनकी रचनाओं से रुबरू होते हैं।

सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय

सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर पद लिखे व गाये। यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी उनके गुरु वल्लभाचार्य ने। सूरदास के जन्म को लेकर विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। कुछ उनका जन्म स्थान गांव सीही को मानते हैं जो कि वर्तमान में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में पड़ता है तो कुछ मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम को उनका जन्मस्थान मानते हैं। मान्यता है कि 1478 ई. में इनका जन्म हुआ था। सूरदास एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे। इनके जन्मांध होने को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। दरअसल इनकी रचनाओं में जो सजीवता है जो चित्र खिंचते हैं, जीवन के विभिन्न रंगों की जो बारीकियां हैं उन्हें तो अच्छी भली नज़र वाले भी बयां न कर सकें इसी कारण इनके अंधेपन को लेकर शंकाएं जताई जाती हैं। इनके बारे में प्रचलित है कि ये बचपन से साधु प्रवृति के थे। इन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में मिली थी। जल्द ही ये बहुत प्रसिद्ध भी हो गये थे। लेकिन इनका मन वहां नहीं लगा और अपने गांव को छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे। जल्द ही ये वहां से भी चल पड़े और आगरा के पास गऊघाट पर रहने लगे। यहां ये जल्द ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। यहीं पर इनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।

सूरदास जी की जयंती

सूरदास की जन्मतिथि को लेकर पहले मतभेद था, लेकिन पुष्टिमार्ग के अनुयायियों में प्रचलित धारणा के अनुसार सूरदास जी को उनके गुरु वल्लाभाचार्य जी से दस दिन छोटा बताया जाता है। वल्लाभाचार्य जी की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी को मनाई जाती है। इसके गणना के अनुसार सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को माना जाता है। इस कारण प्रत्येक वर्ष सूरदास जी की जयंती इसी दिन मनाई जाती है। अंग्रेजी कलैंडर के अनुसार वर्ष 2018 में सूरदास जयंती 20 अप्रैल को है।

  • सूरदास एक कवी के रूप में :
सूरदास हिंदी भाषा के सूर्य कहे जाते हैं इनकी रचनाओं में कृष्ण की भक्ति का वर्णन मिलता हैं. इनकी सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती,ब्याहलों रचनाये प्रसिद्ध हैं.
  1. सूरदास जी ने अपने पदों के द्वारा यह संदेश दिया हैं कि भक्ति सभी बातों से श्रेष्ठ हैं.
  2. उनके पदों में वात्सल्य, श्रृंगार एवम शांत रस के भाव मिलते हैं.
  3. सूरदास जी कूट नीति के क्षेत्र में भी काव्य रचना करते हैं.
  4. उनके पदों में कृष्ण के बाल काल का ऐसा वर्णन हैं मानों उन्होंने यह सब स्वयं देखा हो. यह अपनी रचनाओं में सजीवता को बिखेरते हैं.
  5. इनकी रचनाओं में प्रकृति का भी वर्णन हैं जो मन को भाव विभोर कर देता हैं.
  6. सूरदास जी भावनाओं के घनी हैं इसलिए उनकी रचनायें भावनात्कम दृष्टि कोण से अत्यंत लुभावनी हैं.
  7. सूरदास जी के पद ब्रज भाषा में लिखे गये हैं. सूरसागर नामक इनकी रचना सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं.


सूरदास पद एवम दोहे अर्थ सहित ( Surdas Dohe with meaning in hindi)

मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
अर्थात :
सूरदास जी कहते हैं कि जब कृष्ण जी छोटे थे तब अपने बड़े भाई बलराम के कारण बहुत दुखी होकर अपनी मैया यशोदा से कहते हैं कि हे मैया बलराम भैया मुझे बहुत चिढ़ाते हैं मुझे कहते हैं कि मैया ने तुझे मोल भाव देकर ख़रीदा हैं.उनके इसी व्यवहार के कारण में खेलने नहीं जाता वो बार –बार मुझसे पूछते हैं कि मेरे माता पिता कौन नहीं.और यह भी कहते हैं कि नन्द बाबा और माता यशोदा दोनों का ही रंग गौरा हैं और मेरा काला. बार बार सखाओं के सामने मुझे चिढ़ाते हैं और खूब नचाते हैं मेरी इस दशा पर सभी हँसते हैं.और माँ तू भी मुझे ही डाटती और मरती हैं बड़े भैया को कुछ नहीं कहती. माँ तू गौ माता की सोगंध खा मैं ही तेरा सुपुत्र हूँ.सुरदास जी कहते हैं कि कृष्ण लला की यह मोहित करने वाली बाते सुनकर माता यशोदा भी मुस्कुरा रही हैं.

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
अर्थात :
सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण जी एक नन्ही सी सखी से  पूछते  हैं कि तुम कौन हो,उसकी मैया से कहते हैं काकी तेरी ये बेटी कहाँ रहती हैं कभी ब्रज में देखी नहीं क्यूँ तेरी बेटी ब्रज में आकर हमारे साथ खेलती हैं ? वो नन्द का लाला जो चौरी करता फिरता हैं उसे चुपचाप सुन रही हैं कृष्ण कहते हैं चलो ठीक हैं हमें खेलने के लिए एक और साथी मिल गई हैं. श्रृंगार रस के प्रचंड पंडित राधा और कृष्ण की बातचीत को अनूठे ढंग से प्रेषित कर रहे हैं.

Post a Comment

Previous Post Next Post